Sunday, September 4, 2016

आओं एक बार

आओं! बतर्ज़ मौसिकी से
तुम्हारी रूह को एक काला टीका लगा दूं
उलझी हुई सी मगर भटकी हुई नही जुल्फों को
एक आवारा पहाड़ी हवा से मिलवा दूं
थोड़ा नजदीक बैठो
साँसों की सुलह करा दूं
दफ़अतन बात बस इतनी सी है
ये जो तुम सही गलत की सोचो में गुम हो
हरफ़ और जज्बातों की पैरहन में गुम हो
आओ इनसे तुम्हारी रिहाई करा दूं

एक कली जो यूं मुरझाई
एक हंसी जो बेसबब न आई
एक खामोशी जो चुनती है तन्हाई
करवटों का कर्जा लौटा दूं
जिस्म की पैमाईश घटा दूं
आओ तुम्हें एक बार तुमसे मिलवा दूं

हरगिज़ ये गम न होगा
तुमसे कुछ भी तुम्हारा कम न होगा
वसल औ हिज्र की रातों का तजरबा नम न होगा
खुशबूओं का फिर ऐसा मौसम न होगा
गई रुतों को एक चिट्ठी लिखवा दूं
आओं तुम्हारे माथे पर आधा चाँद उगा दूं

नुमाईश नही ये जिक्र ए वफ़ा है
हयात खुद बने के खड़ी हया है
पलकों के रोशनदान में लगे जाले हटा दूं
रोशनी के लिबास में कुछ वादें दोहरा दूं
शिकवों से हर एक रंज मिटा दूं
आओं तुम्हारे कान पर एक ताबीज़ छुआ दूं

आओं फिर से एक नई बात सुना दूं
आओं हकीकत को थोड़ी देर के लिए उलझा दूं।

©डॉ.अजित

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