Sunday, November 27, 2016

घर

उस घर में रंग बिरंगे तकिए थे
परदों का था अपना वास्तु शास्त्र
खाने की मेज़ और पढ़ने की मेज़ पर
चीनी और कोरियाई खिलौने अलग-अलग थे

किताबें वहां ऐसी सजी थी
मानों मुद्दत से वे देख रही हो
मनुष्यों के बेवकूफियां

घर के तौलिए अनुशासन में गीले थे
कोई नही गिन सकता था उनकी सिलवटें
फ्रिज के नजदीक टंगा था
बी पॉजिटिव रहने का एक निस्तेज विचार
किसी महंगी पेंटिंग की शक्ल में

उस घर के बर्तन जरूरत से ज्यादा भारी थे
उनमें थी अजीब किस्म की भारी खनक
जिसे सुन भूख मर जाती थी आधी
पानी पीते हुए लगता था डर
पानी पीने आवाज़ बिगाड़ न दे घर की शान्ति

मेहमान उस घर का बहुप्रतिक्षित व्यक्ति जरूर था
मगर वो भेद नही कर पाता था
कौन असल में मालिक है और कौन मेहमान
वो कोशिश करता बैठे रहने की
बिना दायीं टांग को हिलाए

उस घर में दरअसल कई घर थे
मेहमान की शक्ल में
इसकी खबर असल घर को थी
मगर घर के मालिक को बिलकुल भी नही थी

वो हाईजीन जैसी
छोटी छोटी बातों से बहुत खुश था
उसकी खुशी झलकती थी बातों में

मैनें जब दुःख पर बातें करना चाही
उसने कहा कौन दुखी नही इस दुनिया में
जबकि मैं दुनिया की नही उसकी बात कर रहा था

उस घर में दुःख और सुख की नही
किसी तीसरी मनोदशा पर बात की जा सकती थी
तब मुझे वो घर लगा थोड़ा सा मायावी

डर के मारे नही जाता उस घर कभी
मगर वो घर अक्सर करता है मेरा पीछा
जबकि मेरे पास नही है कोई भी छिपी हुई बात
तीसरी मनोदशा पर।

© डॉ.अजित

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

तीसरी मनोदशा
अच्छा है ।