Friday, November 4, 2016

अयाचित

अयाचित प्रेम
कुछ इस तरह से हुआ अनुपस्थित
जैसे अचानक से बारिश
बरसते-बरसते निकल आई हो धूप

न जाने कब से कर रहा था तैयारी
चुपके से ओझल हो जाने की
और हुआ इस तरह से ओझल जैसे
हाथ हिलाते हिलाते हम
छोड़ आते है गहरे दोस्त की चौखट

ये कथन अधूरा है
संदेहास्पद है
और थोड़ा अविश्वसनीय भी कि
प्रेम हुआ जीवन से अनुपस्थित
इस पर सवाल किए जा सकते है
इस पर सलाह दी जा सकती है बिन मांगी
प्रेम को न समझने का इलज़ाम तो
वो भी लगा सकता है
जिसके पास नफरत के सिवाय कुछ न  हो

फिर भी सच तो यही है
कुछ इस तरह से हुआ प्रेम अनुपस्थित
जैसे एकदिन कोई भूल जाता है
खुद के जूते का नम्बर
जैसे कोई भूल जाता है
जेब में जरूरी कागज़ या फिर एक नोट

जब प्रेम हो रहा था अनुपस्थित
ठीक उसी वक्त
भूल गए सारी शिकायतें
सांझी अच्छी खराब आदतें
उसी वक्त यादों को छोड़ दिया
किसी पहाड़ी मोड़ की तरह

प्रेम का अनुपस्थित होना
बेहद सामान्य घटना नही थी
मगर उसे सामान्य मानने के अलावा
कोई दूसरा विकल्प भी नही था
असामान्य प्रेम का सामान्य ढंग से छूटना
कुछ कुछ वैसे था
जैसे सुबह सुबह छूट गई हो पहली बस
और अनमने मन से कोई हुआ हो सवार
किसी दूसरी सवारी में

इसके बाद वो जहां भी पहूँचेगा
निसन्देह थोड़ी देर से ही पहूँचेगा
उससे छूट जाएगी हर चीज़
एक छोटी सी मानक दूरी से
प्रेम का अनुपस्थित होना दरअसल
जीवन में विलम्ब का
स्थायी रूप से उपस्थिति होना भी था
और सबसे मुश्किल था
इस विलम्ब को आदत में ढाल लेना
और मुस्कुराते हुए
बात-बेबात माफी मांगना।

©डॉ. अजित

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर ।

HindIndia said...

बहुत ही उम्दा .... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... Thanks for sharing this!! :) :)