अस्पताल की कविताएँ- 2
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नित्य
और अनित्य के मध्य
डॉक्टर
का संतुलित मत
कभी
भरोसा जगाता था
तो
कभी डराता था
उन
दिनों मैं हो गया था बेहद कन्फ्यूज्ड
किसे
माना जाए भगवान
कभी
डॉक्टर लगा था भगवान
तो
कभी भगवान लगता था एक डॉक्टर.
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कभी
कभी जूनियर डॉक्टर
सीनियर
डॉक्टर से तुम्हारी बीमारी के बारें में
करते
थे सवाल-जवाब
उस
वक्त रूम बन जाता क्लास रूम
तुम्हें
‘सब्जेक्ट’ बनता देख लगता था बेहद खराब
तब
डॉक्टर से नही करता था कोई सवाल
बस
देखता था तुम्हारी तरफ
उस
वक़्त तुम ही थी
जिसके
पास था मेरे हर सवाल का जवाब.
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डॉक्टर
के लिए
तुम
एक बीमार देह थी
यह
उनकी पेशेवर प्रशिक्षण का हिस्सा था
फिर
भी
मैंने
कई बार डॉक्टर को देखा
थोड़ा
निजी तौर पर चिंतित होते हुए
जब
तुम ठीक हो गई
डॉक्टर
ने अपनी खुशी छिपाई हमसें
तब
जान पाया मैं
एक
डॉक्टर की परिपक्वता.
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नर्सिंग
स्टेशन का स्टाफ
मेरी
अधीरता के कारण
मुझे
करता था
थोड़ा
नापसंद
महज़
तुम्हारे कारण
वो
मुस्कुराते हुए आता था पेश
मैंने
डिस्चार्ज के वक्त
जब
उनको कहा धन्यवाद
उन्होंने
कहा ‘ख्याल रखना’
तुम्हारे
प्यारा होने का यह सबसे बड़ा सबूत था
मेर
लिए.
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कुछ
दवाओं के नाम
मुझे
याद रहा गए है
मैं
उन्हें भूलना चाहता हूँ
जब
कोई करता है
बीमारी
की बात
मेरे
याददाश्त हो जाती है ताज़ा
फिर
जानबूझकर
बीमारी
की बात पर
सुना
देता हूँ मैं अपनी एक कविता
दवा
को भूलने की
यही
एक दवा है मेरे पास.
©
डॉ. अजित
1 comment:
बहुत सुन्दर
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