एक बात कहनी थी तुमसे
पता नही तुम इस पर कैसे रियेक्ट करोगी
ये जो तुम हंसते हुए हिचकियों की शक्ल में
लेती हो छोटे-छोटे पॉज
ऐसा लगता है जैसे नदी की एक धारा ने
आगे बढ़ने से कर दिया हो इनकार
वो खेलने लगी हो किनारे के पत्थरों के साथ
आईस –पाईस
कभी-कभी तुम कुछ कहते हुए
जब रुक जाती हो अचानक
ऐसा लगता है जैसे कोई पहाड़ी चिड़िया
भटक गई हो घाटी में
हवा का इन्तजार जितना मुश्किल होता है उसके लिए
उतना ही मुश्किल होता है
मेरे लिए उस बात के पूरी होने का इन्तजार
जब तुम अपने कंगन को चढ़ा लेती हो आस्तीन तक
और अकेली पड़ जाती है तुम्हारी कलाई
उस वक्त मुझे याद आता है
वो मन्नत का कलेवा
सोचता हूँ कितना अच्छा होता
उसे बाँधा होता मैंने तुम्हारी कलाई पर
इस तरह से भी पूरी होती एक मन्नत
जब तुम कहती हो -सुनो !
मैं तब सुनता नही हूँ बस देखता हूँ सुनना
और इस तरह छूट जाती है
मेरे सपनों की कस्बे वाली आखिरी बस
फिर रात भर मैं भटकता हूँ
अनजान जगह पर दर ब दर
उसी सुबह मुझे आता है एक सपना
जिसमें तुम अपना कहना छोड़कर
सुन रही हो मेरी शिकायतें
तुम्हारे कान की तलहटी में
जब एक लट डाल देती है झूला
तब मुझे लगता है कि इस बार भी
देर से आया है बसंत
तुम संभालती हो खुद को
और बिगड़ता जाता हूँ मैं
तुम्हारे माथे की लकीरों में जब
रास्ता भटकता है ईश्वर
तब मुझे दिखाई देता है वो
किसी भी प्रार्थना से अधिक स्पष्ट
मैंने उसे रास्ता दिखाना चाहता हूँ
मगर ठीक उसी वक्त
आँखें खोल देती हो तुम
इस तरह ईश्वर मेरे जीवन से होता है ओझल
ये कुछ बातें है
जो तुम्हें कहना चाहता हूँ
क्यों कहना चाहता हूँ
जिस दिन इस बात का पता चलेगा
उस दिन कहूंगा जरुर
तुम सुनों या न सुनों तुम्हारी मर्जी.
© डॉ. अजित
पता नही तुम इस पर कैसे रियेक्ट करोगी
ये जो तुम हंसते हुए हिचकियों की शक्ल में
लेती हो छोटे-छोटे पॉज
ऐसा लगता है जैसे नदी की एक धारा ने
आगे बढ़ने से कर दिया हो इनकार
वो खेलने लगी हो किनारे के पत्थरों के साथ
आईस –पाईस
कभी-कभी तुम कुछ कहते हुए
जब रुक जाती हो अचानक
ऐसा लगता है जैसे कोई पहाड़ी चिड़िया
भटक गई हो घाटी में
हवा का इन्तजार जितना मुश्किल होता है उसके लिए
उतना ही मुश्किल होता है
मेरे लिए उस बात के पूरी होने का इन्तजार
जब तुम अपने कंगन को चढ़ा लेती हो आस्तीन तक
और अकेली पड़ जाती है तुम्हारी कलाई
उस वक्त मुझे याद आता है
वो मन्नत का कलेवा
सोचता हूँ कितना अच्छा होता
उसे बाँधा होता मैंने तुम्हारी कलाई पर
इस तरह से भी पूरी होती एक मन्नत
जब तुम कहती हो -सुनो !
मैं तब सुनता नही हूँ बस देखता हूँ सुनना
और इस तरह छूट जाती है
मेरे सपनों की कस्बे वाली आखिरी बस
फिर रात भर मैं भटकता हूँ
अनजान जगह पर दर ब दर
उसी सुबह मुझे आता है एक सपना
जिसमें तुम अपना कहना छोड़कर
सुन रही हो मेरी शिकायतें
तुम्हारे कान की तलहटी में
जब एक लट डाल देती है झूला
तब मुझे लगता है कि इस बार भी
देर से आया है बसंत
तुम संभालती हो खुद को
और बिगड़ता जाता हूँ मैं
तुम्हारे माथे की लकीरों में जब
रास्ता भटकता है ईश्वर
तब मुझे दिखाई देता है वो
किसी भी प्रार्थना से अधिक स्पष्ट
मैंने उसे रास्ता दिखाना चाहता हूँ
मगर ठीक उसी वक्त
आँखें खोल देती हो तुम
इस तरह ईश्वर मेरे जीवन से होता है ओझल
ये कुछ बातें है
जो तुम्हें कहना चाहता हूँ
क्यों कहना चाहता हूँ
जिस दिन इस बात का पता चलेगा
उस दिन कहूंगा जरुर
तुम सुनों या न सुनों तुम्हारी मर्जी.
© डॉ. अजित
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