विवाह और प्रेम: कुछ विवादास्पद स्थापनाएं
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विवाह
के पक्ष
और
विपक्ष मे
देखे/पढ़ें
जा सकते है
अनेक
तर्क-वितर्क
प्रेम
का नही होता है
कोई
विपक्ष
इसलिए
यह
बनाता है व्यक्ति को अधिनायक
**
विवाह
मे प्रेम न हो
या
प्रेम की परिणिति विवाह में न हो
खुद
को अधूरा समझते है लोग
दरअसल
प्रेम
और विवाह दोनों ही होते
एक
वृत्त की तरह
जहां
से चलतें है एक दिन
लौटकर
आना होता है वहीं.
**
कुछ
प्रेमियों ने
विवाह
किया
और
प्रेम को भूल गए
कुछ
लोगो ने विवाह किया
और
प्रेम को तलाश्तें रहें
दोनों
किस्म के लोग
आपस
में कम ही मिलें
मगर
जब भी मिलें
एक
दूसरे को देखकर कहा
‘धप्पा’
**
सभी
विवाहित
दुखी
है
ऐसी
ध्वनि
लोक
के सस्ते चुटकुलों में
मिलेगी
हमेशा
सभी
प्रेमी विशिष्ट है
ऐसी
ध्वनि
प्रेम
कविताओं में
मिलेगी
हमेशा
विवाह
और प्रेम
यथार्थ
की तराजू में टंगे मिलेंगे सदा
सुख
या दुःख
दरअसल
इस तराजू का पासंग है.
**
मैंने
पूछा
जिससे
प्रेम किया
क्या
उसी से विवाह किया तुमनें?
उसनें
बदलें में यह नही पूछा
जिससे
विवाह किया
क्या
उसी से प्रेम करते हो तुम?
प्रेम
का सबसे बड़ा आदर यही था.
©
डॉ. अजित
नोट-
( सुदर्शन शर्मा जी की कविता पढ़कर उपजे कुछ कवितानुमा फुटकर ख्याल)
3 comments:
प्रेम एक अविरल धारा जिसे अगर सतत निर्मल न रहने दिया जाये तो वह फिर प्रेम नहीं रह पाता .. स्थापनायें अवरोध सी हैं और इसीलिये इनके होने पर विवाद का होना अवश्यम्भावी है ।
अच्छी और सशक्त रचना ।
बहुत बढ़िया
फुटकर जिन्दगी से मेल खाते हुऐ। बढ़िया।
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