Tuesday, January 29, 2019

यात्रा


कविता में दर्शन था
और दर्शन में कविता
यह बात मनोविज्ञान के जरिए पता चली
मगर उस समय मन का भूगोल
राजनीतिक विमर्शों में व्यस्त था
इसलिए अंत में सम्बन्धो के गणित में
केवल बचा औपचारिक शिष्टाचार का
नागरिक शात्र.  
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एक गहरी बात में में दिमाग में अटक गई
एक हलकी बात दिल में अटक गई
कविता दोनों की तरफ हाथ बढ़ाती थी
और मैं अंदर की तरफ धंसता जाता था
कविता के सारे प्रयास हुए विफल
मुझे बाहर निकालनें के
और आखिरी तौर पर मुझे
रस आने लगा था यात्राओं के किस्सों में.
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प्रेम में गल्प न था
प्रेम में कल्पना भी न  थी
प्रेम में जो यथार्थ था
वो गल्प जैसा लगा
कल्पना के सघनतम क्षणों में
इस तरह कल्पना ने बताया मुझे
प्रेम मुझमें नही था
मैं प्रेम में था.
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उसने कहा
क्या तुम अवांछित हो
जो हमेशा पूछते हो दूसरों से
खुद के बारें में राय
मैंने कहा
नही, मैं शायद उनके बारें में
खुद की राय तलाशता हूँ
इस बहाने
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© डॉ. अजित


2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुन्दर

'एकलव्य' said...

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