Wednesday, May 25, 2016

कौतुहल

बहते जल की छोटी सी धारा में
बनता है एक छोटा भवँर
मुझे याद आती है
तुम्हारी नाभि
भँवर में समा जाता है
शाख से टूटा एक पत्ता
तब मुझे याद आती है
अपने कान की प्रतिलिपि
जो समा गई थी तुम्हारी नाभि में
मगर भँवर की तरह नही
बल्कि उस बच्चे की तरह
जो रेल की पटरी पर कान लगा
सुनता है रेलगाड़ी आने की ध्वनि
मेरी और उस बच्चे की मुस्कान में
कोई ख़ास अंतर नही था
वो आश्वस्ति से भरा था
और मैं एक कौतुहल से।

©डॉ.अजित

1 comment:

विरम सिंह said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 29 मई 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!