कभी जिसको हमारे गुरुर पे गुरुर था
वो फ़क़त अधूरे लम्हों का सुरूर था
भीड़ में वो था बेहद तन्हा और मामूली
खुद की तन्हाई में वो बेहद मशहूर था
दिन को कहते थे रात और रात को दिन
वो दौर भी क्या दौर था अजब फितूर था
मैं खोया था अपनी ही बदनसीबियों में
गुफ़्तगु में उसे लगा मैं बेहद मगरूर था
बिछड़ कर उससे रास्तों का पता न मिला
वो शख्स नही हौसलें का एक दस्तूर था
खोकर उसे मैं अपनी आब खो बैठा
वो मस्तक का मेरे ऐसा कोहिनूर था
© डॉ.अजित
वो फ़क़त अधूरे लम्हों का सुरूर था
भीड़ में वो था बेहद तन्हा और मामूली
खुद की तन्हाई में वो बेहद मशहूर था
दिन को कहते थे रात और रात को दिन
वो दौर भी क्या दौर था अजब फितूर था
मैं खोया था अपनी ही बदनसीबियों में
गुफ़्तगु में उसे लगा मैं बेहद मगरूर था
बिछड़ कर उससे रास्तों का पता न मिला
वो शख्स नही हौसलें का एक दस्तूर था
खोकर उसे मैं अपनी आब खो बैठा
वो मस्तक का मेरे ऐसा कोहिनूर था
© डॉ.अजित
1 comment:
बहुत सुन्दर ।
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