Monday, September 12, 2016

प्राश्रय

स्मृतियों के एक अक्ष पर
टांग रखा है तुम्हारी अंगड़ाई को
जब भी दिल उदास होता है
तुम्हें देख मुस्कुरा पड़ता हूँ

उम्मीद और भरोसे के सहारे आजकल
तुम्हारी बातों को ओढ़ता हूँ
बैचेनी और नींद की चादर की तरह एक साथ
लगता है कहीं तुम भूल तो नही गई मुझे
फिर देता हूँ नसीहत खुद को ही
मान लिया भूल भी गई हो मुझे
मगर कैसे भूल सकती है मेरे पवित्र स्पर्श को

चाँद आधी रात कराहता है जब
जाग जाता हूँ हड़बड़ाकर
नही सुन पाते मेरे कान
तुम्हारी शिकायतों को
बन्द कमरे के बाहर चांदनी
चिपका देती है मेरी कुर्की का नोटिस

इनदिनों सबसे ज्यादा याद आता है
तुम्हारा गुस्सा
बरस जाना तुम्हारा आवारा बदली की तरह
मेरा माथा अब गर्म रहता है
बरसात के इंतजार में भूल गया हूँ मै
हिंदी मास के नाम
सितंबर महीने की सुनता हूँ
मौसम की भविष्यवाणी
इस तरह तुम्हें याद करते हुआ जाता हूँ अंग्रेज

कृष्ण -शुक्ल पक्ष और नक्षत्र के फलादेश
बांचता हूँ रोज़
करता हूँ दिशाशूल का विचार
जिस जगह तुम रहती हो
इसी ग्रह पर होने के बावजूद
आसान नही है वहां की यात्रा
शुभ अशुभ से परे मैं घड़ी की सुईयों पर
झूला डाल ऊंघता रहता हूँ दिन में कई बार

भले ही इस देश का बाशिंदा हूँ
मगर तुम्हारा शहर करता है इनकार
मुझे एक नागरिक मानने से
उसे लगता हूँ मै संदिग्ध
और तुम्हारी बाह्य शान्ति के लिए एक खतरा
निर्वासन प्राश्रय के लिए
नही करता वो स्वीकार मेरी तमाम अर्जियां

फिर तुम्हारी यादें देती है दिलासा
कि तुम कर रही हो इंतजार मेरा बसन्त सा
साल कोई सा भी हो
मुझे जाना होगा उसी तरह से घुमड़कर
ताकि बह जाए हमारे मध्य की
तमाम गलतफहमियां
हंसी के पतनालों से

उम्मीद के भरोसे हूँ आजकल
तुम पता नही किसके भरोसे हो
मेरे तो नही हो कम से कम
चलो ! ये भी एक अच्छी ही बात है।

©डॉ.अजित