आजकल
हमारे बीच चुप्पा चल रहा है
चुप्पा
और अबोला में एक बुनियादी फर्क है
अबोला
किसी नाराजगी में होता है
चुप्पा
अकारण हो जाता है
लगता
है जैसे बातचीत के
सारे
विषय समाप्त हो गए है
हम
एक दूसरे से ऊबे हुए प्रेमी है
जैसे
पतझड़ में धरती ऊब जाती है सूखे पत्तो से
और
दिन में हरियाली से ऊब जाता है आसमान
एक
मंजिल पर पहुँच कर
हम
दिख रहें हैं चुके हुए
प्रेमी
युगल की तरह
जैसे
आख़िरी बस छूट गई हो
किसी
दूरस्थ देहाती गाँव के लिए
और
हम अकेले खड़े रह गए हो
किसी
सुनसान कस्बें में
एक
दुसरे की शक्ल देखते देखते
हम
भूल गये है अपना-अपना सौन्दर्यबोध
इसलिए
नही कर पाते तारीफ़
अब
किस अच्छी चीज की
स्मृतियों
के वातायन में
सूख
रहे है सांझें स्वप्न
उन्हें
तह करके रखना होगा
अब
हिज्र के मौसम के लिए
फिलहाल
छूट
रहे है हाथ
जैसे
पतवार से छूट जाते है किनारे
और
नदी समझती है कोई उसे पार गया
ये
विचित्र संधिकाल है
यहाँ
किसी के पास कोई आरोप नही है
कोई
महानताबोध से ग्रसित भी नही है
विलगता
का कोई नियोजन भी नही है
इस
चुप्पा में
उड़
रही है रिश्तों की मीठास
अपनी
लय और गति के साथ
बेहद
धीमी गति से.
बिना
किसी औपचारिक भूमिका के
यह
कहना पड़ रहा है मुझे
अब मिट रही है हमारी संयुक्त पहचान
समय
को इस पर खेद है
मगर
हमें समय पर कोई खेद नही है
ये
विचित्र मगर खराब बात है
जिसे
जान पाया हूँ मै
इस अनजानी चुप के बीच.
©
डॉ. अजित
2 comments:
क्षमा करेंगे। कुछ लिखा फिर हटा दिया अच्छा लिखते हैं आप हमेशा ही ।
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