Thursday, May 18, 2017

चुप्पा

आजकल हमारे बीच चुप्पा चल रहा है
चुप्पा और अबोला में एक बुनियादी फर्क है
अबोला किसी नाराजगी में होता है
चुप्पा अकारण हो जाता है
लगता है जैसे बातचीत के
सारे विषय समाप्त हो गए है

हम एक दूसरे से ऊबे हुए प्रेमी है
जैसे पतझड़ में धरती ऊब जाती है सूखे पत्तो से
और दिन में हरियाली से ऊब जाता है आसमान

एक मंजिल पर पहुँच कर
हम दिख रहें हैं चुके हुए
प्रेमी युगल की तरह
जैसे आख़िरी बस छूट गई हो
किसी दूरस्थ देहाती गाँव के लिए
और हम अकेले खड़े रह गए हो
किसी सुनसान कस्बें में  

एक दुसरे की शक्ल देखते देखते
हम भूल गये है अपना-अपना सौन्दर्यबोध
इसलिए नही कर पाते तारीफ़
अब किस अच्छी चीज की

स्मृतियों के वातायन में
सूख रहे है सांझें स्वप्न
उन्हें तह करके रखना होगा
अब हिज्र के  मौसम के लिए  

फिलहाल
छूट रहे है हाथ
जैसे पतवार से छूट जाते है किनारे
और नदी समझती है कोई उसे पार गया


ये विचित्र संधिकाल है
यहाँ किसी के पास कोई आरोप नही है
कोई महानताबोध से ग्रसित भी नही है
विलगता का कोई नियोजन भी नही है

इस चुप्पा में
उड़ रही है  रिश्तों की मीठास
अपनी लय और गति के साथ
बेहद धीमी गति से.

बिना किसी औपचारिक भूमिका के
यह कहना पड़ रहा है मुझे  
अब  मिट रही है हमारी संयुक्त पहचान

समय को इस पर खेद है
मगर हमें समय पर कोई खेद नही है
ये विचित्र मगर खराब बात है
जिसे  जान पाया हूँ मै
 इस  अनजानी चुप के बीच.


© डॉ. अजित 

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...
This comment has been removed by the author.
सुशील कुमार जोशी said...

क्षमा करेंगे। कुछ लिखा फिर हटा दिया अच्छा लिखते हैं आप हमेशा ही ।