दृश्य एक:
नींद
में नदी मुझे जगाती है
स्वप्न
में पहाड़ मुझे बुलाते है
बुखार
में समंदर मुझे समझाता है
हंसते
हुए रास्ता मुझे टोकता है
रोते
हुए झरना मुझे देखता है
मंदिर
मेरी योजनाओं का साक्षी बनता है
सीढ़ियों
पर मेरे सपने हाँफते पड़े रहते है
मेरी
जिद खरपतवार के यहाँ
चाय
की पत्ती उधार मांगने चला गई है
और
मुझे अज्ञात दृश्यों की हाजिरी के लिए नियुक्त किया गया है
मैं
देखता हूँ और गिनती भूल जाता हूँ
मेरे
स्मृतियों में कुछ चेहरे है
जो
आपस में कतई में नही मिलते है
इसलिए
मेरी
याद अब संदिग्ध हो गई है.
दृश्य
दो:
स्पर्शो
की प्रतिलिपि
कहीं
रख कर भूल गया हूँ
फिलहाल
उनकी गवाही की सख्त जरूरत है
यदि
ये स्पर्श नही मिलें
मेरी
सजा तय हो जाएगी
मैं
सजा से नही
बल्कि
अपनी
स्मृतियों के चूक जाने से घबरा रहा हूँ
तुम्हारे
स्पर्शों के बिना
निर्वासन
भी कहाँ आसान होगा?
दृश्य
तीन:
ईश्वर
से पूछता हूँ
तुम्हारी
आँखें नही थकती
हस्तक्षेप
शून्य दुनिया को देखते हुए
अच्छा
होता थोड़ी देर सो लेते तुम
ईश्वर
मेरी बिन मांगी सलाह पर रो पड़ता है
फिर
मुझे याद आता है
खुद
का मनुष्य होना और मैं भी रोने लगता हूँ
फिर
पुन:
मैं
देखने लगता हूँ आसमान की तरफ
और
ईश्वर देखने लगता है धरती की तरफ.
©डॉ.
अजित
1 comment:
बहुत सुन्दर
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