नदी पर बांध
खेती पर ऋण
मजदूरी पर आधार कार्ड
जरूरी हो गया है
मरने के लिए
कोई बड़ी बीमारी जरूरी नही है अब
आप मर सकते है
कुछ छींक आने भर से
लोग उजड़ जाए
किसान मर जाए
मजदूर परदेस को जाए
अब कुछ फर्क नही पड़ता
किसी को
लड़कियाँ लकड़ी की तरह चूल्हे में लगी है
राख बनने पर उन्ही की राख से
पोता जाएगा चूल्हा
देश अब एक बड़ी कंपनी के माफिक है
सीईओ के भरोसे है अब जनकल्याण
लोकतंत्र का इंक्रीमेंट और इंसेंटिव
भरोसे है अम्बानियों और अडानियो के
विकास देश का बिन ब्याहा लड़का है
जो थोड़ा बिगड़ैल भी है
जिधर को निकलता है
लील जाता है मासूम सपनें
विकास का ब्याह पूंजी से कराने की तैयारी है
देश के बड़े बुजुर्गों और मालिकान को
इससे उसके अंदर
दिख रही सुधार की बड़ी गुंजाईश
बच्चें सांस ले रहे है असामान्य गति से
उनका रक्तचाप छूट गया है
नापने के पैमानों से
हम उन्हें देखकर लगाते है अनुमान
कौन कितनी दूर से दौड़कर आया है
बच्चों को गोद नही शोक नसीब है
और आप पूछते है मुझसे
मैं चुप क्यों बैठा हूँ
कुछ करता क्यों नही
मैं उलटा पूछता हूँ आपसे
क्या देश मुझे वो करने देगा
जो करना चाहता हूँ मैं
मैं चाहता हूँ खाल के नगाड़े बनाना
मैं चाहता हूँ इतना शोर
कि नींद में सोते हुए लोग
बहरें हो जाए सोते हुए ही
मेरी चाहतें अब इतनी वीभत्स है
मैं कर सकता हूँ
किसी दिन अपनी ही हत्या
और रख दूंगा इल्ज़ाम
किसी अपने गहरे दोस्त पर
मैं भरोसे से चूक गया हूँ
देश के अंदर
समाज के अंदर
और खुद के अंदर
इसलिए
मुझसे डरना बेहद जरूरी है
क्योंकि मैं खुद से बहुत डरा हुआ हूँ।
©डॉ.अजित
खेती पर ऋण
मजदूरी पर आधार कार्ड
जरूरी हो गया है
मरने के लिए
कोई बड़ी बीमारी जरूरी नही है अब
आप मर सकते है
कुछ छींक आने भर से
लोग उजड़ जाए
किसान मर जाए
मजदूर परदेस को जाए
अब कुछ फर्क नही पड़ता
किसी को
लड़कियाँ लकड़ी की तरह चूल्हे में लगी है
राख बनने पर उन्ही की राख से
पोता जाएगा चूल्हा
देश अब एक बड़ी कंपनी के माफिक है
सीईओ के भरोसे है अब जनकल्याण
लोकतंत्र का इंक्रीमेंट और इंसेंटिव
भरोसे है अम्बानियों और अडानियो के
विकास देश का बिन ब्याहा लड़का है
जो थोड़ा बिगड़ैल भी है
जिधर को निकलता है
लील जाता है मासूम सपनें
विकास का ब्याह पूंजी से कराने की तैयारी है
देश के बड़े बुजुर्गों और मालिकान को
इससे उसके अंदर
दिख रही सुधार की बड़ी गुंजाईश
बच्चें सांस ले रहे है असामान्य गति से
उनका रक्तचाप छूट गया है
नापने के पैमानों से
हम उन्हें देखकर लगाते है अनुमान
कौन कितनी दूर से दौड़कर आया है
बच्चों को गोद नही शोक नसीब है
और आप पूछते है मुझसे
मैं चुप क्यों बैठा हूँ
कुछ करता क्यों नही
मैं उलटा पूछता हूँ आपसे
क्या देश मुझे वो करने देगा
जो करना चाहता हूँ मैं
मैं चाहता हूँ खाल के नगाड़े बनाना
मैं चाहता हूँ इतना शोर
कि नींद में सोते हुए लोग
बहरें हो जाए सोते हुए ही
मेरी चाहतें अब इतनी वीभत्स है
मैं कर सकता हूँ
किसी दिन अपनी ही हत्या
और रख दूंगा इल्ज़ाम
किसी अपने गहरे दोस्त पर
मैं भरोसे से चूक गया हूँ
देश के अंदर
समाज के अंदर
और खुद के अंदर
इसलिए
मुझसे डरना बेहद जरूरी है
क्योंकि मैं खुद से बहुत डरा हुआ हूँ।
©डॉ.अजित
1 comment:
सशक्त रचना
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