Sunday, March 18, 2018

तर्पण

मैं अपने लिखे हुए से घिर गया
मेरी धूप और छांव के
विकसित हो गए
बेहद विचित्र संस्करण

मुद्दत तक मुझे नही मिल पाया
बाहर का हवा पानी
अपने त्रिकोण में बैठा
मैं इस कदर मग्न था कि
भूल गया
सिमटती जाती है हर दिन
हर निजी धूप और छाँव

जब मैं अपने
लिखे हुए के नीचे दबकर मर गया
तब अक्षरों ने किया मेरा तर्पण
तभी मुझे पता चली यह बात

विस्मृति ही मोक्ष का पहला चरण है।

©डॉ. अजित

3 comments:

'एकलव्य' said...

निमंत्रण

विशेष : 'सोमवार' १९ मार्च २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा और आदरणीया 'विभारानी' श्रीवास्तव जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।

अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

प्रियंका सिंह said...

बहुत पसंद है ये नई कविता

प्रियंका सिंह said...

बहुत पसंद है ये नई कविता