Wednesday, September 8, 2010

काफिर

तेरी इस बात पर सोच कर हैरान हूं

दोस्त के घर लगता है मेहमान हूं

वक्त के आईने से छिपता फिरा

चेहरे से अपने अंजान हूं

नज़र ने नज़र से राज ये कह दिया

अब मै कहाँ उनकी पहचान हूं

काफिर को यकीन कैसे आता

मै सहर की अजान हूं

सब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन

देवता नही मै भी इंसान हूं

शराफत जहाँ बिकती है बेमौल

ज़ज्बात की मै वो दूकान हूं

डा.अजीत

5 comments:

वीरेंद्र सिंह said...

सब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन देवता नही मै भी इंसान हूं शराफत जहाँ बिकती है बेमौल ज़ज्बात की मै वो दूकान

डॉक्टर साहब ..बहुत ही अच्छी बात आपने लिखी है
पढ़कर अच्छा लगा .

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत रचना ..

शोभा said...

बहुत अच्छा लिखा है। आभार।

ZEAL said...

.
सब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन

देवता नही मै भी इंसान हूं

शराफत जहाँ बिकती है बेमौल

ज़ज्बात की मै वो दूकान हूं

lovely lines...mesmerizing indeed !

.

रंजना said...

सब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन
देवता नही मै भी इंसान हूं !!!

बहुत सुन्दर रचना.....