Tuesday, October 7, 2014

कोयला

देखो !
फ़िलहाल
ख्याल ख्वाब और हकीकत के
महीन रेशों में मत उलझों
लम्हा-लम्हा रिसती जिन्दगी पर
वफाओं के पैबंद लगाते -लगाते
उम्र कम पड़ जाएगी
इससे पहले शिकवों की सीलन
तुम्हारे काजल को फैला दें
कुछ पलों के लिए ही सही
बंद आँखों से जी लो अपना हिस्सा
अब तक किस्तों में जीती आई हो तुम
अपनी धडकन की लय और
साँसों के आरोह-अवरोह की
एकसाथ तुरपाई कर दों
फिर मन ही मन गुनगुनाते
अपनी बिखरी सरगम को साधो
इससे पहले वक्त की तल्खी और
हकीकत की धुंध
तुम्हारी रोशनी में धुंधलका भर दें
पढ़ो वें सारे खत आहिस्ता-आहिस्ता
जो आंसूओं की स्याही से तुमने
मन के पीले पन्नों पर लिखे थे
एक गहरी लम्बी सांस लो किसी योगी की तरह
और खींच लो सारा अवसाद अपने अंतर में
अवसाद की छाँव में
मुहब्बतों की दरी पर कुछ देर सुस्ता लो
रोजमर्रा की खुद से लड़ाई
तुम्हे वक्त से पहले बुझा रही है
जानता हूँ तुम्हारा बुझना
कोयले की तरह बुझना है
जो अपनेपन की जरा सी आंच और
जरा सी हवा से
फिर से सुलगकर जल उठेगा
अपनी तमाम नमी के बाद भी
इस सर्दी में तुम्हें
धूप की तरह खिड़की से उतरता देखना चाहता हूँ
बंद कमरें में अंगीठी सी
बहुत जल चुकी हो तुम।

© डॉ.अजीत

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

हमेशा की तरह बेहतरीन !