सात समिधा यज्ञ की...
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तुम्हारी हथेली के
मानचित्र पर नही मिलता
एक कप चाय का पता
मिलता है बस
सही गलत के द्वन्द का
इतिहास
उपदेश की शक्ल में।
***
तुम्हारी आँखों में
रतजगों के किस्से थे
जैसे ही पढ़ना शुरू करता
मूंद लेती तुम आँखें
जितना जानता हूँ तुम्हें
वो लिखा था पलकों पर
आंसूओं की महीन लिखावट से।
***
तुम्हारी कलाई पर बंधा था
शुभता का धागा
उसी के पास बंधी थी घड़ी
दुआ और वक्त
लड़ते रहते थे आपस
जब भी मुझसे
हाथ मिलाती थी तुम।
***
तुम्हारी सांसो की खुशबू
व्याप्त थी मेरे अस्तित्व में
तुमसे मिलने के बाद
मेरे देह की गंध
छोड़ गई मुझे अकेला
तुम्हारे भरोसे
जबकि तुमनें कभी नही ली
मेरी सुध
महकता रहता हूँ रोज
तुम्हें याद करके।
***
तुम्हारी देह के ताप में
भाप बन उड़ जाते थे
हमारें संयुक्त स्वप्न
बादलों में देखे जा सकते थे
उनके प्रतिबिम्ब
वो बरसते बेमौसम
मन की छत पर
फिर बह जाते
आँखों के पतनालें से
आंसूओं की यात्रा
इतनी ही लम्बी थी।
***
कुछ महीन बातें तुमने
सबसे बाद में कही
उनके अर्थ सबसे पहले
समझ गया था
तुम्हारे प्रतिप्रश्न
मेरे भय और सन्देह
की पुष्टि भर थे
जिनके अंतराल में अकेला टंगा था
हमारा प्रेम।
***
तुम्हारे मन में
मेरी स्मृतियों का एक हिस्सा
ग्लानि की शक्ल में था
इसलिए
अपनत्व होता जाता था
निर्धन
मेरे पास तुम्हारी स्मृतियों की
स्थाई पूंजी थी
इसलिए चरम अवसाद में भी
अमीर था मैं।
© डॉ. अजीत
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तुम्हारी हथेली के
मानचित्र पर नही मिलता
एक कप चाय का पता
मिलता है बस
सही गलत के द्वन्द का
इतिहास
उपदेश की शक्ल में।
***
तुम्हारी आँखों में
रतजगों के किस्से थे
जैसे ही पढ़ना शुरू करता
मूंद लेती तुम आँखें
जितना जानता हूँ तुम्हें
वो लिखा था पलकों पर
आंसूओं की महीन लिखावट से।
***
तुम्हारी कलाई पर बंधा था
शुभता का धागा
उसी के पास बंधी थी घड़ी
दुआ और वक्त
लड़ते रहते थे आपस
जब भी मुझसे
हाथ मिलाती थी तुम।
***
तुम्हारी सांसो की खुशबू
व्याप्त थी मेरे अस्तित्व में
तुमसे मिलने के बाद
मेरे देह की गंध
छोड़ गई मुझे अकेला
तुम्हारे भरोसे
जबकि तुमनें कभी नही ली
मेरी सुध
महकता रहता हूँ रोज
तुम्हें याद करके।
***
तुम्हारी देह के ताप में
भाप बन उड़ जाते थे
हमारें संयुक्त स्वप्न
बादलों में देखे जा सकते थे
उनके प्रतिबिम्ब
वो बरसते बेमौसम
मन की छत पर
फिर बह जाते
आँखों के पतनालें से
आंसूओं की यात्रा
इतनी ही लम्बी थी।
***
कुछ महीन बातें तुमने
सबसे बाद में कही
उनके अर्थ सबसे पहले
समझ गया था
तुम्हारे प्रतिप्रश्न
मेरे भय और सन्देह
की पुष्टि भर थे
जिनके अंतराल में अकेला टंगा था
हमारा प्रेम।
***
तुम्हारे मन में
मेरी स्मृतियों का एक हिस्सा
ग्लानि की शक्ल में था
इसलिए
अपनत्व होता जाता था
निर्धन
मेरे पास तुम्हारी स्मृतियों की
स्थाई पूंजी थी
इसलिए चरम अवसाद में भी
अमीर था मैं।
© डॉ. अजीत
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