Monday, May 5, 2014

बेतरतीब

कितना सताता होगा
उन्हें उनका एकांत
कितना अतृप्त होता होगा
उनका अहं
जो लोग फेसबुक पर नही है
बहुत सी कविताएं दम तोड़ देती होंगी
एक अदद पाठक के बिना
कितने खूबसूरत ख्याल रिस जाते होंगे
मन के पतनालें से
बैमौसमी मानसून की तरह
उनके दुखों का बोझ
निसंदेह अनिर्वचनीय हो सकता है
क्योंकि उनके पास
मन की पीड़ा शेयर करने का
कोई तन्त्र नही है
जन्मदिन पर रक्त सम्बन्धियों और चंद परिचितों
की शुभकामनाएं
शायद ही बिना वजह की
एक इंच मुस्कान ला पाती होगी
समझदारी पुते चेहरों पर
उनका आहत मन
शब्दों की गुलामी से उकता गया होगा
क्योंकि वो लम्बे समय से गले में अटके होंगे
और जेहन में टहल रहे होंगे
जो लोग फेसबुक पर नही है
वो दुनिया के सबसे दुखी या सुखी जीव है
यह मै नही कह रहा हूँ
मगर
यदि एकांत और आत्मनिष्ठ जीवन जीने का
अभ्यास न हो
तो हमे आसपास सहमत/असहमत
लोग चाहिए
भीड़ से उकताए लोगो को भी
भीड़ की जरूरत हो सकती है
जरूरतें ही इंसान को इंसान के करीब
लाती है
दरअसल यह एक नियोजित चक्र सा है
मिलकर बिछड़ना
और बिछडकर मिलना
केवल चेहरे बदलते है
हमारी अपेक्षाओं के फ्रेम नही
खुद से पलायन और खुद से सम्वाद
दोनों की आभासी प्रयोगशाला है
फेसबुक
और चयन आपका अपना
यहाँ होना और न होना दोनों ही
तब अधिक अर्थपूर्ण है
जब आप कोई अर्थ नही
तलाश रहे होते है
बस जी रहें होते है यूं ही
बेतरतीब।
© डॉ.अजीत

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

नदी इसलिये नहीं बहती है कि कोई मिलेगा रास्ते में :) कविता भी उसी तरह है कोई मिल गया पाठक तो मुकद्दर :)