Friday, May 23, 2014

ताकि सनद रहे

निजता के प्रश्न
अधूरे थे
जिन्दगी बिना करवट
पसरती जा रही थी
निहत्थे खड़ा
अपनी बर्बादी का
वो सबसे चुस्त
तमाशबीन था
हकीकत की रोशनी
का काजल
स्याह आँख में
आंसूओं को आश्रय दे रहा था
सिसकियों की सरगम
पर वक्त ने जो आलाप छेड़ा
उसके बंध और मजबूती से जकड़ गए
सपनों के गलियारें में गुमनाम भटकते
उसके हसीन पल
निर्वासन झेल रहे थे
इतने मुश्किल दौर में
जब खुद का जीना
चुनौति भरा रहा हो
किसी हंसी ख्याल
को बुनता उधेड़ता
रिश्तों की जमापूंजी को
खर्च करता
महफिलों में वो शख्स
अक्सर उदास पाया जाता
उसकी वसीयत में साफ़ साफ़
लिखा था
माफीनामा
जिसके  हिस्से करने थे
अपने हक के हिसाब से
चंद दोस्तों को
चंद दुश्मनों को
और कुछ हसीनाओं को
ताकि सनद रहे।
© डॉ. अजीत





1 comment:

वाणी गीत said...

उस शख्स की उदासी कविता में भलीभांति उतरती !