Sunday, November 2, 2014

मंचन

दृश्य एक:

नदी नंगे पांव बिरहन सी चली आई
पत्थरों को न गोद नसीब हुई न आंचल
झरना अपने गुमान में बेशऊर गिरता रहा
पहाड बुजुर्ग सा नाराज़ रहा
हवा अपनी दिशा खो बैठी और समकोणों पर बहने लगी
पेड गवाही देने से मुकर गए
झाडियों ने खुसर फुसर की
रास्ते बगावत की उम्मीद में धूल फांकते रहें
फूलों ने सूरज़ की तरफ पीठ कर ली
काटों नें धागा पिरो लिया
सन्नाटा ने चादर फैला दी

दृश्य दो:

समन्दर बेहोश है
नदियां उलझ रही है आपस में
नदियां अपने वजूद को याद कर रोती है
मछलियों अपने दांव और दावें के खेल मे है
हरे शैवाल अपने निर्जन होने दुखी-सुखी है
समन्दर को वादे याद दिलाए जा रहे है
समन्दर न मुकरता है न अपनी बांह फैलाता है
समन्दर ऊकडू बैठा है
गीले रास्ते अपनी जगह बदलते जा रहे है

दृश्य तीन:
सूरज़ नें रोशनी का जाल फैंका
क्षितिज़ ने भ्रम रचा
लहर ने खुश होने का नाटक किया
पानी ने अपना खारापन और बैचेनी दोनो छिपाई
और शाम होते होते
आदतन सब कुछ सुन्दर और व्यवस्थित दिखा
सब कुछ तय सब कुछ निर्धारित।

सूत्रधार:
खुश दिखना और खुश होना दो अलग बातें है
सच कहना और सच जीना दो अलग-अलग संस्करण है
झूठ हर बार छल नही होता
और छल हर बार अज्ञात नही रह पाता
जो ज्ञात है वो अज्ञात का भ्रम है
ज्ञान का चिमटा अकेला नही बजता है
शून्य का सच वृत्त के सच से भिन्न होता है
हर त्रिकोण से त्राटक नही सधता
रेखाएं बिना मदद सीधी नही खींचती
भिन्नता इंसान की मानक त्रुटि है !
खेल खतम
पैसा हजम।

© डॉ.अजीत 

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