Monday, November 24, 2014

ख्वाहिशें

सात अधूरी ख्वाहिशें...
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कुछ ख़्वाब
बो देता हूँ रोज़ तुम्हारे सिराहने
तकिया गवाह है इसका
ख़्वाब जो देखती हो तुम
उनमें शामिल हूँ
एक साजिश की तरह।
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देना चाहता हूँ तुम्हें
कुछ ख़्वाब उधार
लौटा देना मुझे
जब क्या तो मै थक जाऊं
या थक जाओं तुम।
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मांगना चाहता हूँ
उधार
तुम्हारा कॉटन का दुपट्टा
वक्त का पसीने पौंछते हुए
आस्तीन गिली हो जाती है मेरी
अक्सर।
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एक शाम ऐसा भी हो
तुम आओं चुपचाप
और जाओं
खिलखिलाती हुई
ऐसी चाय पर इन्तजार है
तुम्हारा।
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करना चाहता हूँ
खुशी का कारोबार
तुम्हारे साथ
दोनों बेचकर अपनी अपनी उदासी
थोड़े खुश हो जाएं
तो इसमें बुराई क्या है।
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सोचता हूँ अक्सर
बता दूं तुम्हें
अब तुम आदत में नही
जिंदगी में शामिल हो
मगर
सोचता ही रह जाता हूँ
सोचना बुरी चीज़ है।
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कहता हूँ तुमसे
बेफिक्री पर
एक सफेद झूठ अक्सर
अब फर्क पड़ता है
तुम्हारे होने और
न होने पर
सच क्या है
तुम ही जानों।

© डॉ. अजीत

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