Friday, November 28, 2014

तुम्हारा साथ

तुम्हारा साथ: कुछ बात
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तुम्हारे साथ
वक्त ही नही बीतता
बहुत कुछ रीतता भी है अंदर
चाहता हूँ अंदर से भरना
तुम अंजुली भर के
एक खाली जगह
छोड़ देती हो हमेशा।
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तुम्हारे साथ
घंटो बात करने के बाद भी
चूक जाता हूँ बहुत कुछ कहने से
इस तरह खुद को बचाता हूँ
एक नई मुलाक़ात के लिए।
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तुम्हारे साथ
हंसते हुए पढ़ लेता हूँ
तुम्हारी उदासी
फिर लिखता हूँ
उन पर प्रेम कविताएँ
इतना मतलबी तुम समझ सकती हो मुझे।
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तुम्हारे साथ
नजर तलाशती है
एक खुला आकाश
एक साफ़ मौसम
जहां उड़ सके
मन के परिंदे
बेपरवाह।
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तुम्हारे साथ
मन की गिरह
वेणी की गिरह की तरह
उलझी होती है
जो सुलझती है
वक्त की कंघी से
आहिस्ता आहिस्ता।
***
तुम्हारे साथ
गिन सकता हूँ
छूटे लम्हों की कतार
उनसे करता हूँ
रिक्त स्थानों की पूर्ति
बिना किसी विकल्प के साथ।
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तुम्हारे साथ
सीखा है
खुद को साधना
निर्जन गुफा सा एकांत मिला
तुम्हारे कहकहों के बीच।
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तुम्हारे साथ
स्पर्शों ने जीया
पवित्रता का सुख
सम्वेदना ने जाना
देह से इतर
चेतना का अमूर्त पता।
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तुम्हारे साथ
मौन और चुप का अंतर पता चला
हंसी और उदासी का रिश्ता समझ आया
जुड़ने टूटने की खरोंचों को देख पाया
लिखने और जीने का फर्क महसूस किया
ये साथ पूर्णविराम जैसा है
शंका सन्देह के प्रश्नचिन्ह के बाद।
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तुम्हारे साथ
बीज से घना दरख़्त बना
बोझ को ढोना नही जीना आया
तुम्हारे साथ खुद से मिल पाया
तुम्हारे साथ की कृतज्ञता
शब्दों से व्यक्त नही हो सकती
यह मेरी सबसे बड़ी ज्ञात
असफलता है।
© डॉ. अजीत

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