Friday, November 21, 2014

हिज्र

हिज्र पर जाते घटने लगा हूँ
हिस्सों में रोज कटने लगा हूँ

गुनाह कम भी नही है मेरा
ज़बान देकर पलटने लगा हूँ

खूबसूरत आँखों के फरेब थे
रोशनी में भी भटकने लगा हूँ

उदासी का असर गहरा था
हंसते हुए सिसकने लगा हूँ

नजर आता भी कैसे अब
दायरों में  सिमटने लगा हूँ
© डॉ. अजीत 

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