हिज्र पर जाते घटने लगा हूँ
हिस्सों में रोज कटने लगा हूँ
गुनाह कम भी नही है मेरा
ज़बान देकर पलटने लगा हूँ
खूबसूरत आँखों के फरेब थे
रोशनी में भी भटकने लगा हूँ
उदासी का असर गहरा था
हंसते हुए सिसकने लगा हूँ
नजर आता भी कैसे अब
दायरों में सिमटने लगा हूँ
© डॉ. अजीत
हिस्सों में रोज कटने लगा हूँ
गुनाह कम भी नही है मेरा
ज़बान देकर पलटने लगा हूँ
खूबसूरत आँखों के फरेब थे
रोशनी में भी भटकने लगा हूँ
उदासी का असर गहरा था
हंसते हुए सिसकने लगा हूँ
नजर आता भी कैसे अब
दायरों में सिमटने लगा हूँ
© डॉ. अजीत
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