Friday, April 8, 2016

किस्सें

मैं कहता
'अगर'
मगर चुप रह गया
हमारे मध्य यद्यपि का दिशाशूल था
जाने नही देता था वो
हमें एक दिशा में
हमारी पीठ हँसती थी हमारे चेहरों पर।
***
कुछ उत्तर ऐसे थे
जो बेहद ज्ञात किस्म के थे
कुछ प्रश्न ऐसे थे जो बहुत जरूरी थे
उत्तरों की ओट में
प्रश्न सुस्ताते थे
वे दिन परीक्षा के नही
धर्म संकट के थे
फिर भी हमारा एक ही धर्म था
प्यार।
***
मैं बात 'आप' से शुरू करता
और उतर आता 'तुम' पर
और तुम आप और तुम के अलावा कोई
नया सम्बोधन खोजती
तलाश भी लेती मगर बोल न पाती थी
उनदिनों
उलझे सम्बोधन की चटनी रख
बासी रोटी साथ खाते थे हम
तृप्ति का वो एक ऐसा दौर था
जहां एक दुसरे के मध्य से
दौड़ कर निकल सकते थे हम।
***
तुम्हारी अंगड़ाई का आधा वृत्त
धरती का था
और आधा आसमान का
तुम्हारी मुस्कान का आधा वक्र
सूरज का था आधा चाँद का
तुम्हारी सारी हंसी तारों के लिए थी
गुरुत्वकार्षण को तुम तोड़ सकती
अपने गीले बालों के झटके से
तुम्हारे आधे पैर जमीं पर थे
आधे हवा में
तुम उड़ सकती थी
मगर तैर रही थी
मैं कह सकता था
मगर सुन रहा था
मेरा एक कान तुम्हारे पास था
एक आसमान के पास
उनदिनों मुझे खुद का भी नही सुनता था
इसलिए आज नही मेरे पास कोई
स्मृति उन दिनों की।

© डॉ.अजित

1 comment:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " राजनीति का नेगेटिव - पॉज़िटिव " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !