Thursday, October 2, 2014

वजूद

जुड़े की स्टिक/पिन न मिलने पर
तुम्हारी झुंझलाहट
ठीक वैसी थी
जैसे घर से निकलते वक्त
नई जुराब न मिलने पर
मेरी होती थी
फर्क बस इतना था
तुम खुद इधर उधर तलाश रही थी
और मेरे लिए तलाशने को
तुम और  बच्चों सहित
सारा घर लगा हुआ था
सफर के दौरान यही सोचता रहा
यह फर्क कितना गहराता चला जाता है
मेरी हर छोटी बड़ी चीज को सहेजने की
नैतिक जिम्मेदारी तुम्हारी थी
और मेरे पास तुम्हारे खोए पाए का
कोई हिसाब नही था
तुम्हारी हंसी भी वैसे ही खो गई थी
जैसे मेरा
रुमाल खो गया था किसी होटल में
खोने पाने का हिसाब देखा जाए तो
मेरा केवल कुछ सामान ही गुमशुदा है
तुम्हारा तो सारा वजूद ही लापाता हो गया है
तुम्हारा केंद्र एक व्यक्ति एक परिवार है
जिसके इर्द गिर्द घुमती हो तुम उपग्रह सी
देखता हूँ तुम्हें रोज
घर के सपनों की मरम्मत करते हुए
मेरी बेफिक्री तुम्हारी फ़िक्र की फसल है
जिसे मै काटता रहा हूँ बरसों से
कभी कभी मेरा अपराधबोध
इतना गहरा जाता है कि
सप्तपदी के वचन
ऋषियों का षड्यंत्र लगने लगता है
जिसके सहारे रचा जाता है
समर्पण का खेल
माफी मांगने से अगर तुम्हारा खोया
वजूद वापिस मिल पाता तो
मांगता मै सार्वजनिक माफी
मगर तुम्हें जो सिखाया गया है
मेरा ऐसा करने से
तुम्हारा अपराधबोध बढ़ेगा
तुम्हें संदेह होगा खुद के प्रेम पर
तुम्हें कैसे लौटाऊँ
तुम्हारा पूरा वजूद
सारे सफर यही सोचता रहा
अब मंजिल पर उतर रहा हूँ
उतना ही निशब्द
जितना तुम्हें देखता हूँ अक्सर।
© डॉ. अजीत