Thursday, September 18, 2014

हवा

हवा पेड़ के सारे पत्ते नही हिलाती
वो टोकती है सूखे पत्तों को
थोड़ी इनकार के बाद वो
चल पड़ते है धरती से मिलने
हवा का प्रलोभन एक सम्मोहन है
वो रचती है हरे पत्तो की मदद से संगीत
उनकी फडफडाहट सूखे पत्तो को
उकसाने का प्रायोजन मात्र होता है
बेचारी कमजोर शाखाएं
चाहकर भी नही रोक पाती
अपने कमजोर पुत्रों को
स्पंदन के झटके हवा लगाती
पत्तो के कान में गुदगुदी करती
फिर सबसे कमजोर पत्ते
खुद को अलग कर नाचते हुए
जमीन की तरफ बढ़ते
थोड़े बेहोश थोड़े बेफिक्र
उनकी कलाबाजी पर हरे पत्ते
झूठे गीत गाते या फिर
उनकी भावुक मूर्खता पर
तालियां बजाते
ये जो हवा की सरसराहट से
पत्तो का हिलना हम देखतें है
वो हवा के षड्यंत्र और
हरे पत्तो की मूक सहमति का
विजयनाद होता है
सूखे पत्ते कभी नही जान पाते
ये सब
क्योंकि उनका
सम्मोहन तब तक रहता है
जब तक पत्ते गीली जमीन में न धंस जाएं
और पेड़
वो अक्सर हवा से रहता है नाराज़
हवा सुहावनी होने के बाद भी
भंग करती है उसका एकांत
सुहानी हवा का यह एक क्रूर पक्ष है
जिसे जानने के लिए
पेड़ होना पड़ता है
सूखे पत्ते जेब में रख
सोना पड़ता है भूखे पेट
तब नींद में खुलता है यह सब भेद
इनदिनों हवा अच्छी नही लगती
जिसकी वजह मौसम नही
हवा की ये चालाकियां है।
© डॉ.अजीत