Sunday, July 27, 2014

उपसंहार

शब्दों के कण ढोता एक पथिक
चढ़ता है पहाड़ सी जिन्दगी
रचता है सपनों का विचित्र संसार
सौंपता है खुद को प्रेम के हवाले
डरता है खुद को अन्यथा लिए जाने से
देखता है सांझे सपनें
रोज बनता बिगड़ता टूटता है
जीता है हिस्सों में जिन्दगी
खोता है किस्तों में बन्दगी
झेलता है उत्साह और बोझिलता के उतार -चढ़ाव
बीतता और रीतता है समय के सापेक्ष
महसूसता है दो जगह की बैचेनी
रिश्तों के बाँझ निकलने का भय
उसके अनुमानों के गणित को
हमेशा सक्रिय रखता है
वो दर्शन की मदद से जांचता है
व्यवहार की लोच
उसकी यात्रा समानांतर बटी होती है
समकोणों और त्रिकोणों में
वो वृत्त का आयतन मांपता है
समय का षड्यंत्र भांपता है
खुश दिखने की प्रमाणिक कोशिस भी करता है
परन्तु अंत में
पकड़ा जाता है रंगे हाथ
कयासों की चाबुक के सामने होती है
उसकी नंगी पीठ
उसकी पीठ दरअसल एकांत का वो टीला है
जहां से रोज प्रेमी युगल
क्षितिज का सूर्यास्त देखते है
वो शापित है माध्यम बनने के लिए
उसकी भूमिका बस इतनी सी है
वो रोज़ खुद को छलता है
और लिखता है प्रेम कविता
ताकि प्रेम करना जारी रखे लोग
उसकी बड़ी भूमिका का
बस यही छोटा सा उपसंहार है।
© अजीत

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