Saturday, July 5, 2014

गजल

जीना अब हुनर लगता है
मुस्कुराने में डर लगता है

रूह की बातें थी बेकार
जिस्मों का सफर लगता है

नजदीकियों का वहम था
दोस्त अब सिफर लगता है

शिफा नही होनी अब
दवा भी जहर लगता है

मेरी-तेरी लाख तल्खियाँ सही
तेरे होने से मकां घर लगता है

© डॉ. अजीत

1 comment:

दिगम्बर नासवा said...

बहुर खूब .. लाजवाब श्वर ...