वक्त रेत सा फिसलता चला गया
बंदा नजरों से गिरता चला गया
जरूरतें हर रोज बढ़ती ही गई
वो जेब अपनी सिलता चला गया
रोशनी के जश्न में डूबे हुए थे लोग
दूर तक अँधेरा मिलता चला गया
वक्त की गर्दिशो ने कुछ ऐसा घेरा
सूरज सुबह का ढलता चला गया
असली चेहरा देख पाऊं उसका
रात भर दिया जलता चला गया ।
© डॉ.अजीत
बंदा नजरों से गिरता चला गया
जरूरतें हर रोज बढ़ती ही गई
वो जेब अपनी सिलता चला गया
रोशनी के जश्न में डूबे हुए थे लोग
दूर तक अँधेरा मिलता चला गया
वक्त की गर्दिशो ने कुछ ऐसा घेरा
सूरज सुबह का ढलता चला गया
असली चेहरा देख पाऊं उसका
रात भर दिया जलता चला गया ।
© डॉ.अजीत
3 comments:
वाह लिख दूँ या ना लिखूँ ? पता ही नहीं चलता कुछ ? कोई नहीं तुम लिखते रहो ।
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