Sunday, July 20, 2014

गजल

वक्त रेत सा फिसलता चला गया
बंदा  नजरों से गिरता चला गया

जरूरतें हर रोज बढ़ती ही गई
वो जेब अपनी सिलता चला गया

रोशनी के जश्न में डूबे हुए थे लोग
दूर तक अँधेरा मिलता चला गया

वक्त की गर्दिशो ने कुछ ऐसा घेरा
सूरज सुबह का ढलता चला गया

असली चेहरा देख पाऊं उसका
रात भर दिया जलता चला गया ।

© डॉ.अजीत



3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

वाह लिख दूँ या ना लिखूँ ? पता ही नहीं चलता कुछ ? कोई नहीं तुम लिखते रहो ।

सुशील कुमार जोशी said...
This comment has been removed by the author.
सुशील कुमार जोशी said...
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