Wednesday, July 9, 2014

अलख निरंजन

तुम्हारे लोकप्रिय स्टेट्स पर
मेरे लाइक की हाजिरी
उतनी ही गुमनाम रही
जितनी तुम्हारा बाथरूम में गुम हुआ
हेयरपिन
तुम्हारी तस्वीरों पर
मेरे कमेंट्स उतने ही संकोच की धुंध में लिपटे रहे
जैसे जनवरी के पहले हफ्ते में
तुम्हारे घर का रास्ता
तुमको टैग करने से पहले मै उतना ही डरा रहा
जितना पहले इंटरव्यू के दिन डरा था
तुम्हारे लिखे को शेयर करना
मेरे लिए उतना ही अपनापन लिए था
जितना जगजीत की गजलें सुनना
मेरी दर के हर नोटिफिकेशन की लाली में
तुम्हारी आमद की आस सांस लेती थी
मेरे इनबॉक्स का स्याह सफेद नेपथ्य
हमेशा तुमसे सम्बोधन की ध्वनि सुनना चाहता था
अन्फ्रेंड या ब्लॉक करने की धमकी
मेरे लिए उतनी ही कल्पनातीत थी
जितना जल बिन जीवन
तुममे मुझे कितनी बार अनफॉलो किया होगा
तुम्हे भले भी याद न हो
मगर तुम्हे फेक आई डी से कितनी बार पढ़ा है
मुझे हर बार याद है
फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार करने के खुशी
आज भी तुम्हें पाने की खुशी जैसी है
मेरे पास तुम्हारा एक मात्र संदेश सुरक्षित है
जिसमे तुमने सभी को लिखा था
प्लीज लाइक माई पेज़
उस दिन मै देर तक ठहाका मारकर हंसा था
पहली बार मुझे लगा कि बीमा की तरह
लाइक भी आग्रह की विषय वस्तु हो सकती है
मै उस आग्रह को दिल से लगा बैठा
इससे तुम्हें कोई ख़ास फर्क नही पड़ा
बस तुम्हारे पेज़ की एक लाइक बढ़ गई
और मुश्किल
फेसबुक को फेकबुक समझ
अब इस मुश्किल से निकलना चाहता हूँ
ऐसी कविताएँ तुम्हारी फ़िक्र बढाएं
यह कतई नही चाहता
प्रोफाइल डीएक्टिवेट या डिलीट भी नही करना चाहता
बल्कि पासवर्ड भूल जाना चाहता हूँ
ताकि मेरी वाल निर्जन अकेली पड़ी रहें
तुम्हारे अप्रासंगिक अंतहीन इंतजार में
चैट की हरी बत्ती भी जलती रहें
बेअदब और  बेसबब
और मै एकांत सिद्ध बना
अलख जगाऊं किसी गुमनाम दर पर
अलख निरंजन !!

© अजीत

डिस्क्लेमर: यह एक विशुद्ध फेसबुकिया कविता है इसका मेरी निजि जिन्दगी से कोई प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सम्बन्ध नही है। कयासों से बचना निवेदित है। इसे साहित्यिक आस्वाद से पढ़ा जाए न कि मेरा आत्म कथ्य समझकर। :P


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