Thursday, August 28, 2014

दर्द राग

कदम जब खुद का बोझ ढ़ोते हुए
थक जाते है
शिराएं जब कराहती है
करती है चस-चस
तब उपजता है दर्द का अनुभूत राग
धमनियां ढपली बन थाप देने लगती है
त्वचा के रोमछिद्रों से
रिसता है दर्द
बाहर की हवा
अंदर की स्वरलहरियों को गोद उठा
उड़ा जाती है उस देश
जहां दर्द के संगीत घराने  बसते है
दर्द तन का हो या मन का
उसमें कूटबद्ध होता है
एक विचित्र संगीत
इसके आलाप
आरोह-अवरोह के सहारे नही चलते
बल्कि उनका अपना एक शापित नियम है
दिल पर चोट दो
तन को छोड़ दो
जख्मों के तार कसों
और फिर सुनों मौन का नाद
हंसना रोना गाना और बजाना
एक ही सिक्के के चार पहलू है
ये सिक्का जिन्दगी हमें
खोटे सिक्के की शक्ल में देती है उधार
जिसे न कभी चला पाते
और न फैंक पाते है
दर्द के सुगम संगीत के प्रसारण के लिए
कुछ दारुबाज दोस्तों का
तानपुरा उधार मांग
मंच पर चढ़ जाता हूँ
लड़खड़ाता हुआ
अपने गमों को भूली दुनिया
खुशी तलाशने के चक्कर में
मुझे फनकार समझ बैठती है
इसका अपना एक अलग दर्द है।

© अजीत


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