Sunday, August 31, 2014

सात सपनें

सात सपनें: खुली नींद के

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तुम एक ख़्वाब हो
तो मै क्या हूँ
अलसाई नींद।
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मै समन्दर
तेरे इन्तजार में खारा रहा
तुम मुझ तक आते आते सूख गई
मीठी नदी।
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तुम्हारी परछाई
तुमसे बड़ी है
और मै छाया में खड़ा
तुम्हें देखता हूँ।
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तुम्हारी आँखों का रास्ता
कितना फिसलन भरा है
बात बिगड़े
तो बिगड़ती ही चली जाती है।
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तुमने जब से मन ही मन में
मुस्कुराने का हुनर सीख लिया
मै हंसता हूँ अकेले में।
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बातचीत में कई  बार
तुमने मुझे पागल कहा
तब से
पागलपन अच्छा लगता है
समझदारी के बीच।

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तुम्हारी पलकें
चश्में के बोझ में थक गई है
कुछ दिन
उधार ही सही
मेरी आँखों से दुनिया देखो।

© अजीत


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