Tuesday, August 5, 2014

ज्ञान

नेह के निमन्त्रण
अनौपचारिक थकावट भी साथ लाते थे
आग्रह संकोच की चासनी में लिपटे होते थे
यह सायास किसी के स्थापित जीवन में
दखल का एक नीरस प्रयास जैसा था
हर संदेश कौतुक में बदल जाता था
और सम्वाद कौतुहल में
भीड़ का हिस्सा बनकर
भीड़ से अलग दिखने की कवायद में
शब्दों का तसला उठाते हुए कमर दर्द
जीवन का अभ्यास बन जाता था
संकल्पों की धूरी पर
विकल्पों का चाक बड़ी तेजी से घूमता था
उसकी गति और लय बेमेल थी
वो अधूरे पात्र बनाता था
इस दर से उस दर
दस्तक देते उसके कदम अकड़ गए
मन थक कर चूर हो गया
लोगबाग अपने होने के जश्न में मशगूल थे
बावजूद सबके अपने डर संदेह और शंकाएं थी
बिना किसी को खबर दिए
वो चुपचाप अपना अस्तित्व समेट
दूर निकल गया
इस आवाजाही से किसी को
कोई खास फर्क नही पड़ा
सब कुछ यथावत चला उस दुनिया में
क्योंकि वहां चेहरे बदलते रहे
लोग नही
आभास यथार्थ से विचित्र
कल्पना से खतरनाक और
सच से बदरंग हो सकता है
ये उसने निर्वासित होकर जाना।

© अजीत




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