Tuesday, July 1, 2014

मुकदमा

जिस गति ,संख्या और मात्रा में
मै कविताएं लिख रहा था
उसका एकमात्र स्पष्ट संकेत था कि
मेरे पास वक्त बहुत कम बचा है
स्पष्टीकरण के लम्बे नोटिस
असफलताओं के नोट्स
बदलती दुनिया की समीक्षा
बदलते लोगो का चरित्र
और इन सबके बीच
प्रेम,नदी, पक्षी,वृक्ष और प्रकृति के
आख्यान मुझे कविता की शक्ल में लिखने थे
मै इतनी जल्दी में था कि
कई बार यथार्थ को गल्प लिख देता तो
कई बार गल्प को यथार्थ
गद्य को पद्य में लिखने का अभियोग
मुझ पर बहुत पुराना था
कभी मै कथ्य से भटक जाता तो  कभी
मेरे विषय भटक जाते
मेरी कविता में निराशा की नीरवता थी
उसमें दुस्साहस नही था
कुछ को उनमें व्यंग्य भी नजर आया
कुछ के लिए 'मै' का अधिक प्रयोग
साधारणीकरण में बाधा प्रतीत होता था
उनमें तादात्मय का अभाव था
मेरी कविताएँ लापरवाही का दहेज
अपने ब्याह में साथ लायी थी
उनमे उदासी की मूंह दिखाई भी शामिल थी
भागतें-हाँफते वक्त के सामने
जल सी तरल थी मेरी कविताएँ
उनमे गंध, स्वाद कुछ न था
वो बैचेनियों का आलाप थी
वो अकहे संघर्ष की तान थी
वो निजी हार जीत के राजपत्र से अलग थी
मेरे पास कहने के लिए इतने विषय हो गए
कि सबको कविता की शक्ल में न ढाल सका
अंत में, मै उनके बीच भींच गया
समय की कमी
कहने की बैचेनी
और आलम्बन के अभाव में
रिसती रही कविताएँ
कविताओं के सन्दर्भ ले
बतकही में बनती बिगडती रही छवियां
ऐसे मुश्किल दौर में
कुछ कविताएँ शब्दों का आकार
लेने से मना कर विद्रोह पर उतर आयी
दरअसल वो कविता नही
मेरी खुद की सच्चाई थी
जिस पर आज तक कोई कविता न लिख सका
इसे हलफनामे की तरह
समझा जा सकता है
कविताओं  को उनके एकांत से
आश्वासन के बहाने लाने का
मै दोषी हूँ
इस बिनाह पर पढ़ने लिखने वाले लोग
मुझे मृत्युदंड देंगे
इसलिए मैंने शुरुवात में लिखा
मेरे पास वक्त कम बचा है
कविताओं के लिए।
 © डॉ. अजीत