ताप के दस प्रलाप...
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सारे चयन तुम्हारे थे
मिलना
नही मिलना
कभी-कभी मिलना
कभी नही मिलना
मै था
तुम्हारे मन के
अघोषित निर्वात का
ऐच्छिक स्थान पूरक
ये व्याकरण
समझ तो रहा हूँ
मगर स्वीकार नही पा रहा हूँ
अल्पबुद्धि के अल्पविराम
तलाशता हूँ
अपने एक तरफा
अपनेपन में।
***
सन्देह
ज्ञात उत्तर था
कल्पना
स्वयं एक प्रश्न
विवेचना
अर्जित ज्ञान की सीमा
अनुभव
धारणाओं के
बंधुआ मजदूर
और हम तुम
अज्ञानी
मानस वैज्ञानिक
सम्पादक अपनी अपनी
असुरक्षाओं के।
***
अभिलाषा की पूर्णता
अप्राप्यता की दासी लगी
और प्राप्यता
वर्जनाओं के द्वारपाल
इधर तुम कामनासिद्ध हुई
उधर तुम्हारे जीवन में
मै अप्रासंगिक
विकर्षण बना
बोध का अवैध पुत्र।
***
शब्दों का हिसाब
दिया जा सकता है
क्षणों को विस्मृत
किया जा सकता है
परन्तु
कुछ भाव जो केवल
तुम्हारे लिए जन्में थे
उनका स्थगन
किसी उच्च न्यायालय से
नही मिलता
उनकी इच्छामृत्यु की अर्जी
दाखिल करता हूँ
अज्ञात अदालत में
शायद अनुमति मिलें
और मृत्यु हो कम कष्टकर।
***
तुम्हारे आने ने
जितना सरल किया था
तुम्हारा जाना
उतना ही
जटिल कर गया है मुझे
अब शब्द बेफिक्र
बहते नही हवा से
सावधान हो
सड़ते जाते है
स्थिर जल से।
***
जानती हो
दुनिया में सबसे बड़ा
दुःख क्या है
बार बार खुद को
इस उम्मीद पर ठगना कि
दुनिया तुम्हें
ठीक से समझ रही है
दरअसल
दुःख मनुष्य की
भावुक मूर्खता का
ऐच्छिक चुनाव का प्रतिफल है।
***
खेद यह भी है
तुम ईश्वर के उस षडयन्त्र का
हिस्सा बनी
जिसमें वो
देखना चाहता है मुझे
हताश
दुःखी और
आत्महन्ता।
***
तुम्हारे अचेतन की
आदर्श कामना का
प्रतिबिम्ब
मुझे प्रकाशित करने की बजाए
क्षणिक आवेग का
हिस्सा बन
चल गया था अपनी चाल
मैं हंस रहा था दृष्ट भाव से
तुम रो रही थी
उसे पाप समझ।
***
निसन्देह
तुम्हारे प्रश्न
नैतिक थे
उनके उत्तर
दर्शन की शाखाओं से उड़
मनोविज्ञान की गोद में
लोरी सुन रहें थे
अपराधबोध में
तुमनें उनको जगाया
ये तुम्हारा अपराध है
इन्तजार करती
उनके नींद से जागने तक।
***
एक बूढ़ा स्वप्न देखता हूँ
जवानी के दिनों में
जब उम्र न बढ़ें और न घटे
इस अवस्था में
उस स्वप्न को
अतृप्त कामना नही कह सकता
क्योंकि उस स्वप्न में
तुम स्वीकारती हो
मुझमें बिना शर्त रूचि का होना
गौरतलब हो
मैं स्वप्न की बात कर रहा हूँ
यथार्थ की नही।
© डॉ. अजीत
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सारे चयन तुम्हारे थे
मिलना
नही मिलना
कभी-कभी मिलना
कभी नही मिलना
मै था
तुम्हारे मन के
अघोषित निर्वात का
ऐच्छिक स्थान पूरक
ये व्याकरण
समझ तो रहा हूँ
मगर स्वीकार नही पा रहा हूँ
अल्पबुद्धि के अल्पविराम
तलाशता हूँ
अपने एक तरफा
अपनेपन में।
***
सन्देह
ज्ञात उत्तर था
कल्पना
स्वयं एक प्रश्न
विवेचना
अर्जित ज्ञान की सीमा
अनुभव
धारणाओं के
बंधुआ मजदूर
और हम तुम
अज्ञानी
मानस वैज्ञानिक
सम्पादक अपनी अपनी
असुरक्षाओं के।
***
अभिलाषा की पूर्णता
अप्राप्यता की दासी लगी
और प्राप्यता
वर्जनाओं के द्वारपाल
इधर तुम कामनासिद्ध हुई
उधर तुम्हारे जीवन में
मै अप्रासंगिक
विकर्षण बना
बोध का अवैध पुत्र।
***
शब्दों का हिसाब
दिया जा सकता है
क्षणों को विस्मृत
किया जा सकता है
परन्तु
कुछ भाव जो केवल
तुम्हारे लिए जन्में थे
उनका स्थगन
किसी उच्च न्यायालय से
नही मिलता
उनकी इच्छामृत्यु की अर्जी
दाखिल करता हूँ
अज्ञात अदालत में
शायद अनुमति मिलें
और मृत्यु हो कम कष्टकर।
***
तुम्हारे आने ने
जितना सरल किया था
तुम्हारा जाना
उतना ही
जटिल कर गया है मुझे
अब शब्द बेफिक्र
बहते नही हवा से
सावधान हो
सड़ते जाते है
स्थिर जल से।
***
जानती हो
दुनिया में सबसे बड़ा
दुःख क्या है
बार बार खुद को
इस उम्मीद पर ठगना कि
दुनिया तुम्हें
ठीक से समझ रही है
दरअसल
दुःख मनुष्य की
भावुक मूर्खता का
ऐच्छिक चुनाव का प्रतिफल है।
***
खेद यह भी है
तुम ईश्वर के उस षडयन्त्र का
हिस्सा बनी
जिसमें वो
देखना चाहता है मुझे
हताश
दुःखी और
आत्महन्ता।
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तुम्हारे अचेतन की
आदर्श कामना का
प्रतिबिम्ब
मुझे प्रकाशित करने की बजाए
क्षणिक आवेग का
हिस्सा बन
चल गया था अपनी चाल
मैं हंस रहा था दृष्ट भाव से
तुम रो रही थी
उसे पाप समझ।
***
निसन्देह
तुम्हारे प्रश्न
नैतिक थे
उनके उत्तर
दर्शन की शाखाओं से उड़
मनोविज्ञान की गोद में
लोरी सुन रहें थे
अपराधबोध में
तुमनें उनको जगाया
ये तुम्हारा अपराध है
इन्तजार करती
उनके नींद से जागने तक।
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एक बूढ़ा स्वप्न देखता हूँ
जवानी के दिनों में
जब उम्र न बढ़ें और न घटे
इस अवस्था में
उस स्वप्न को
अतृप्त कामना नही कह सकता
क्योंकि उस स्वप्न में
तुम स्वीकारती हो
मुझमें बिना शर्त रूचि का होना
गौरतलब हो
मैं स्वप्न की बात कर रहा हूँ
यथार्थ की नही।
© डॉ. अजीत
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