शून्य से शून्य तक: दस सफर
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एक विराट शून्य
तुम्हारी ऐडी बना गई
वापिस लौटते समय
तुम्हारे पदचिन्ह
मानचित्र थमा गए
निर्वासन के टापू का।
***
पीड़ाएं जो दी
शब्दों ने
भूल गया हूँ
नही भूल पाता
तुम्हारा लहज़ा।
***
तुम्हारी तटस्थता
एक युक्ति थी
मेरी निकटता
एक बिखरी हुई सच्चाई
तुम देख पाई
अपने हिस्से का सच
त्रासद बस यही था।
***
देह के गलियारें
स्पर्शों के मुहाने मिले
दो आईनें
नही देख पातें
आपसे में
एक दूसरे के चेहरें
आइनों और रिश्तों का सच
मिल जाता है कई बार।
***
सही या गलत
पाप या पुण्य
सच या झूठ
सबके अपनें अपनें
संस्करण
अपनें अपनें मुकदमें
कुछ असहमतियां
सम्प्रेषित नही हो पाती
शब्द भरम बन जाएं
ये ब्रह्म की चाल है।
***
मन का रास्ता
बुद्धि से छोटा था
और बुद्धि
भटकाव की शिकार
निर्णय सब के सब संदिग्ध
तुम्हारी आश्वस्ति
मेरी आसक्ति
डराती थी बस।
***
तुम्हारी हथेलियों पर
नही तलाश पाया
अपनत्व का नक्शा
बतौर यायावर
यह सबसे बड़ी
अज्ञात असफलता है।
***
तुम्हारी लौटती परछाई
देख रही थी
मेरी तरफ
पहली दफा देखा
पीठ पर उगती
आँखों को।
***
तुम्हारे उद्देश्य
स्पष्ट थें
और अभिव्यक्तियां अमूर्त
मेरे अनुमान गलत थे
और
कल्पनाएं सच।
***
तुम्हारे बाद
करना पड़ा खुद को खारिज़
सोचना पड़ा
अपनें निर्णयों पर
सुख हो या दुःख
अतीत को सम्पादित करना चाहते है
मजबूर मनुष्य
ईश्वर का कद बड़ा करता है
यही जाना तुम्हारे बाद।
© डॉ. अजीत
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एक विराट शून्य
तुम्हारी ऐडी बना गई
वापिस लौटते समय
तुम्हारे पदचिन्ह
मानचित्र थमा गए
निर्वासन के टापू का।
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पीड़ाएं जो दी
शब्दों ने
भूल गया हूँ
नही भूल पाता
तुम्हारा लहज़ा।
***
तुम्हारी तटस्थता
एक युक्ति थी
मेरी निकटता
एक बिखरी हुई सच्चाई
तुम देख पाई
अपने हिस्से का सच
त्रासद बस यही था।
***
देह के गलियारें
स्पर्शों के मुहाने मिले
दो आईनें
नही देख पातें
आपसे में
एक दूसरे के चेहरें
आइनों और रिश्तों का सच
मिल जाता है कई बार।
***
सही या गलत
पाप या पुण्य
सच या झूठ
सबके अपनें अपनें
संस्करण
अपनें अपनें मुकदमें
कुछ असहमतियां
सम्प्रेषित नही हो पाती
शब्द भरम बन जाएं
ये ब्रह्म की चाल है।
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मन का रास्ता
बुद्धि से छोटा था
और बुद्धि
भटकाव की शिकार
निर्णय सब के सब संदिग्ध
तुम्हारी आश्वस्ति
मेरी आसक्ति
डराती थी बस।
***
तुम्हारी हथेलियों पर
नही तलाश पाया
अपनत्व का नक्शा
बतौर यायावर
यह सबसे बड़ी
अज्ञात असफलता है।
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तुम्हारी लौटती परछाई
देख रही थी
मेरी तरफ
पहली दफा देखा
पीठ पर उगती
आँखों को।
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तुम्हारे उद्देश्य
स्पष्ट थें
और अभिव्यक्तियां अमूर्त
मेरे अनुमान गलत थे
और
कल्पनाएं सच।
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तुम्हारे बाद
करना पड़ा खुद को खारिज़
सोचना पड़ा
अपनें निर्णयों पर
सुख हो या दुःख
अतीत को सम्पादित करना चाहते है
मजबूर मनुष्य
ईश्वर का कद बड़ा करता है
यही जाना तुम्हारे बाद।
© डॉ. अजीत
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