Tuesday, December 16, 2014

वक्त के आरपार

वक्त के आर-पार...
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चौंबीस घंटे का
एक नियत चक्र
और रोज़ शाम
तुम्हारी याद की दस्तक
जैसे
हिस्सों में बंटना
किस्तों में कटना
तुमसे अधूरा ही मिलना होगा
इस जन्म में।
***
थोड़ी रात के ख़्वाबों की तसल्ली
थोड़ी सुबह की चाय
थोड़े दोपहर के काम
चार बजे तक खींच लाते है
शाम आती है
चाय पर तुम्हारा इंतजार करता हूँ
तुम्हारा न आना निश्चित है
मुझे जीवन में
अनिश्चितता से
इसलिए भी प्रेम है।
***
रात को सोने
सुबह को जागने
और दिन में भागने के बीच
तुमसे कब मुलाक़ात हो
सोचता रहा हूँ अक्सर
वक्त का बीतना
खुद के साथ
सबसे हसीन धोखा है।
***
दीवार पर टंगी घड़ी
डरा देती है कई बार
उसकी आवाज़ कहती है
तुम नही तुम नही तुम नही
एक घड़ी मन की दीवार पर टंगी है
जो कहती है तुम हो तुम हो तुम हो
मैं इन दोनों घड़ियों का
वक्त मिलाता रहता हूँ।
***
वक्त गुजरता नही
फिसलता भी
तुम्हारे साथ अक्सर
वक्त कम पड़ जाता है
और खुद के साथ
अक्सर ज्यादा
जैसे शाम होते होते ही होती है।
***
तुम्हारी कलाई पर बंधी घड़ी
मेरे घड़ी से आगे है
और मेरी घड़ी का दावा
आगे होने का है
समय के अपने
षडयन्त्र होते है
मनुष्य को अप्रासंगिक सिद्ध करने के।
***
तुम्हारी हंसी
सूरज पर उधारी चढ़ाती है
कायनात की रोशनी में
तुम्हारा भी हिस्सा है
मै सितारों से अवसाद मांगता हूँ
उनकी प्रकाश वर्ष में दूरी है
मगर वो जलते बुझते दिखते है
मेरी तुमसे दूरी ज्ञात है
मै न जलता हूँ
और न बुझता हूँ।
***
अच्छा वक्त या बुरा वक्त
होता भी है
समझ नही पाता हूँ
वक्त का होना प्रमाणिक लगता है
जब तुम साथ होती हो
तुम्हारे बिन
वक्त घड़ी में दौड़ता है
मगर नजरों में खो जाता है।
***
मौसम और वक्त को जोड़कर
अनुभूत करना मुश्किल लगता है
तुम्हारे सत्संग से
बिगड़ जाता है
मन का भूगोल
जलवायु को उलट देती हूँ तुम
दिसम्बर में तुम्हें याद करते हुए
मेरे माथे पर पसीना है।
***
वक्त बेहद चालाक है
ये बाँट देता है
खुशी गम रंज के घंटे
इनमें उलझाकर
तुमसे दूर करने के
तमाम जतन करता है
मै अगले दिन को उधार मांग
तुम्हें याद करता हूँ
मानों चाहे न मानों
इस मामलें में तुमसे
एकदिन बड़ा हूँ मैं।

© डॉ. अजीत

1 comment:

Meenu said...

वक़्त के आर-पार की बातें कष्टदायक पर फ़िर भी बहुत सुन्दर!
समय की लड़ियों को ख़ूबसूरती से शब्दों में पिरोया है आपने!